God of slightly bigger things
Thursday 7 June 2018
Monday 28 November 2016
Thursday 13 October 2016
झूठा
''शेखर
जी ज़रा ये ड्राफ्ट देख लीजीए ना. आप देख लेंगे तो तसल्ली रहेगी.''
हमेशा की तरह बड़े बाबू ने बेशर्मी से दांत निपोरते हुए फाइल शेखर के टेबल पर रख दी. शेखर ने बिना कुछ कहे फाइल अपनी तरफ खींच ली ।
बड़े बाबू कुछ खिसिया से गए और बेशर्मी पर शिष्टाचार का मुलम्मा
चढ़ाते हुए बोले, ''और भाभी जी कैसी हैं. बिटिया कौन सी क्लास में है आपकी.''
शेखर ने चश्मा उतार कर बड़े बाबू की ओर गहरी नज़र से देखा.
बड़े बाबू झेंप गए और फिर से अपने ख़ास अंदाज़ में हीं हीं हीं करने लगे, ''अब तो काफी बड़ी हो गई होगी बिटिया.''
''हां बस आखरी साल है स्कूल का. कल ही कह रही थी कि पापा आजकल
हंडरेड परसैन्ट से भी एडमिशन नहीं मिलता.''
शेखर कुछ सोचते
हुए बोला.
''आपकी कोई जान-पहचान है बड़े बाबू किसी कॉलेज वॉलेज में. कहती है
कि घटिया कॉलेज में नहीं पढ़ूँगी आपकी तरह.''
बड़े बाबू कुछ
बोले नहीं बस सिर हिला कर रह गए और फिर फाइल की ओर इशारा करते हुए बोले
''देख लीजीएगा.''
''देख लीजीएगा.''
सारे ऑफिस में ये अफवाह आम थी कि शेखर और उसकी बीवी अब साथ नहीं रहते थे और उनकी बेटी भी उसकी बीवी के साथ ही रहा करती थी. कुछ लोग तो कहते हैं तीन साल हो गए हैं कुछ छ: साल बताते थे. ऑफिस के लोगों ने अकसर उसे अपने घर से उल्टी दिशा में जाने वाली ट्रेन पकड़ते देखा था. कोई कभी अगर पूछ लेता, ''अरे शेखर बाबू, आज इस तरफ ?''
तो वो अकसर कह
दिया करता था,
''मेरी बेटी को मछली बहुत पसन्द है, मंडी जा रहा हूँ ताज़ी मछली लाने.''
कुछ
लोगों ने कई बार उसे मछली खरीदते हुए भी देखा था. पर मछली लेकर फिर उसे अपने घर से
उल्टी दिशा में जाने वाली ट्रेन पकड़ते भी देखा था.
ऑफिस
की महिलाओं की फुसफुसाहट में उसके इश्क के किस्से भी आम थे. पर उनमें कोई दम ना
था. शेखर के अंदर इश्क अब जि़ंदा नहीं रहा था.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
घर का ताला खोलने के लिए शेखर को ताले का की होल देखना नहीं पड़ता था. अपने
बैग से टटोल कर चाभी निकालने और नीम अंधेरे में ताला खोल लेने की उसे आदत हो चुकी थी.
दरवाज़ा खोलने पर सुनाई
देने वाली सीली लकड़ी की चरचराहट अब उसे चौंकाती नहीं थी. पुराने पड़ चुके दरवाज़े
को एक ख़ास अंदाज़ में धक्का देकर बंद करने में वो एक्स्पर्ट हो चुका था.
दरवाज़े के उस तरफ की बाहरी दुनिया और दरवाज़े के इस तरफ
शेखर की दुनिया में वही फर्क था जो रंगमंच में स्टेज और बैक स्टेज में होता है.
रंगमंच पर जो ब्लॉक रंगीन लाइटें पड़ते ही सोने के महल की तरह चमक उठते हैं वही
ब्लॉक नाटक ख़त्म हो जाने पर कोने में कूड़े के ढ़ेर की मानिंद पड़े होते हैं. जो
आते जाते कलाकारों के लिए रूकावट के अलावा और कुछ नहीं होते.
डेढ़ घंटे से दाहिने कंधे पर टंगे बैग को जब उसने उसके निर्धारित
स्थान पर रखा तो उसे एहसास हुआ कि उसका कंधा दर्द कर रहा है. बैग की जि़प ख़राब हो
चुकी थी. उसे हल्के हल्के झटके देकर खोलना पड़ता था.
उस बैग में बैंक की पासबुक और कुछ बिना ढक्कन वाले पैनों
के अलावा एक तरफ एहतियात से रखा खाने का डिब्बा था. शेखर ने खाने का डिब्बा निकाल
कर उसे हिलाया और स्टील के चम्मच की खड़खड़ाहट से आश्वस्त होकर शेखर ने डिब्बा फिर
से बैग में ही रख दिया.
बर्तन धोने के सिंक में
चाय बनाने का बर्तन और एक अदद कप शेखर के एकाकी जीवन का इश्तेहार जारी कर रहे थे.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
ऑफिस के माहौल में सारी
अफवाहों, गप्पबाज़ी और चुहलबाज़ी का अड्डा कैन्टीन होता है. जो लोग सिगरेट नहीं पीते
उनके लिए लंच के समय कैन्टीन ही एकमात्र ऐसी जगह होती है जहां वो अपने मन की
कुंठाओं का प्रदर्शन कर सकते हैं.
पुरूषों द्वारा महिलाओं
का चरित्र चित्रण, महिलाओं द्वारा सहकर्मी पुरूषों के कपड़े पहनने के बौड़म तरीके का विश्लेषण, प्रेम प्रसंग, अपने बॉस को गरियाना, अधूरी ख्वाहिशें, मां के हाथ का खाना, दूसरे की थाली में ताकना
वगैरह बगैर किसी ख़ास क्रम के पूरे लंच आवर में लगातार चलते रहते हैं.
लंच का टाईम एक बजे था
पर शेखर पौने एक बजे ही अपना लंच बॉक्स उठा कर कैन्टीन की ओर चल देता था. उसके समय
से पहले कैन्टीन जाने पर उसके सैक्शन से उठने वाली फुसफुसाहट का वो आदि हो चुका
था.
कभी कभी फुसफुसाहटें
थोड़ी तेज़ होकर फब्तियों की शक्ल ले लेतीं.
''अरे शेखर यार ऐसा क्या है तुम्हारे खाने के डिब्बे में''
''लगता है भाभी ने स्पैशल भेजा है कुछ''
''कभी हमें भी तो चखाओ यार''
इस पर शेखर मज़ाक करते
हुए कहता,
''अरे तुम्हें नहीं मालूम. पूरा तौल के खाना देती है और घर जाकर मेरा वज़न
कर लेती है कि खाना कहीं कम ज्यादा तो नहीं खाया.''
ठहाकों के बीच शेखर खाने
का खाली डिब्बा संभालते हुए वहां से निकल जाता था.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
कैन्टीन में समय से
पहले आने का फायदा ये होता था कि कोने वाली छोटी टेबल मिल जाती थी जिस पर शेखर
अकेला बैठ कर खाना खा सकता था. कैन्टीन के बॉय से उसकी एक अंडरस्टैंडिंग थी. वो
उसके वहां आते ही उसका रोज़ का दाल-सब्ज़ी रोटी वाला आर्डर लाकर रख देता था.
शेखर के पास तकरीबन दस
बारह मिनट का समय होता था जिसमें उसे अपने ख़ाली डिब्बे का राज़ बचाने और लोगों
के सवालों से बचने के लिए अपना खाना खत्म करके वहां से निकलना होता था. और वो
इसमें पारंगत हो चुका था.
पर कभी कभी कोई बर्थडे
पार्टी या सुट्टे के प्यासे लोग उसका यह प्रयास विफल कर देते थे.
''अरे ये क्या शेखर जी, आप घर का खाना छोड़ कर कैन्टीन का खाना क्यूँ खा रहे हैं.''
जवाब होता
''अरे मिसेज ब्रह्मा, क्या बताऊँ. रोज़ रोज़ वही घीया तोरी. मैं तो परेशान हो गया. आज सोचा
थोड़ा टेस्ट बदल लूँ.''
''ओए होए शेखर जी अब वर्किंग लेडीज़ क्या करे बेचारी. ऊपर से बेटी को भी
देखना होता है. और बेटी कैसी है. बड़ी हो गई होगी. मैंने आज बैंगन बनाए हैं. आप खा
के देखो. मेरे मिस्टर तो उंगलियां तक चाट जाते हैं.''
''अरे नहीं मिसेज ब्रह्मा, आप रहने दीजीए मेरा हो गया बस. वैसे भी अगर आपके हाथ के स्वादिष्ट खाने
की आदत पड़ गई तो रोज़ रोज़ घर में क्या बहाना बनाऊँगा.''
एक दिन भाटिया साहब ने
तो हद्द ही कर दी, सीधे शेखर के टेबल पर आए और खाने का डिब्बा उठा कर खोल लिया. खाली डिब्बे
को देखकर भाटिया साहब अपने फूहड़ अंदाज़ में बोले, ''ओए ये कौन सा मिस्टर
इंडिया वाला खाना है. दिखाई ही नहीं दे रहा.''
शेखर सकपका गया. फिर
संभल कर बोला. ''भाटिया जी, क्या बताऊं आज सुबह सुबह बहस हो गई.''
''ओए क्या हो गया''
''बस भाटिया साहब मैंने ऐेसे ही कह दिया ज़रा तड़के में मिर्च कम डालना, कल तुमने पता नहीं
कितनी लाल मिर्च झौंक दी थी.''
बस ये सुनना था कि भड़क
गई. ''अच्छा मेरा खाना अगर इतना ज़हर लगता है तो अपने खाने का इंतज़ाम खुद ही कर
लेना.'' और खाली डिब्बा पैक कर दिया. मैं भी गुस्से में खाली डिब्बा लेकर ही आ
गया.
''तू भी यार शेखर बड़ा नखरीला है. थोड़ा बहुत एडजस्टमैन्ट करना पड़ता है.
अब मुझे देख, 15 सालों से बेस्वाद खाना खा रहा हूँ. कभी उफ्फ तक नहीं की. बस कभी कभी टेस्ट
बदल लेता हूँ इधर उधर.'' और भाटिया साहब अर्थ भरी आंख मार कर अपने फूहड़ मज़ाक पर ख़ुद ही हंसते
हुए वहां से चले गए.
रोज़ एक नई कहानी. रोज़
एक नया बहाना. चौदह साल की शादी ने शेखर को और कुछ दिया हो या ना दिया हो, ये घर गृहस्थी की
कहानियां ज़रूर दे दी थीं.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
क्या जीवन में अकेला रह
जाना शर्मिन्दा होने का कारण हो सकता है. हॉलीवुड की फिल्मों में जिस तरह इंसानी
रिश्ते टूटने को इतनी शालीनता और सहजता से दिखाया जाता है. क्या हम अपने समाज
में इस तरह नहीं कर सकते. क्यूँ मैं ऐसा सोचता हूँ कि अगर सबको पता चल गया कि मैं
अब अपनी बीवी और बच्ची के साथ नहीं रहता तो मुझे एम्बैरेसमैन्ट होगी.
नहीं. शर्म नहीं है.
कोफ्त है. झूठी हमदर्दियों से. लोगों के तुम्हारे चरित्र पर शक करने से. तुम्हारे
मर्द होने की वजह से लोगों का तुम्हें ही इस बात का जि़म्मेदार मानना. ज़रूर
तुमने ही कुछ किया होगा. कोई चक्कर वक्कर तो नहीं चल रहा तुम्हारा. घर में पैसे
वैसे तो देते हो ना. बीवी का ख्याल नहीं रखते होगे. अकेले रह जाने वाले मर्दों का
भी अपना एक संघर्ष होता है. मानसिक, सामाजिक और शारीरिक जो आसान नहीं है.
बस इन्हीं सब ख्यालों
से लड़ते लड़ते शेखर के सैपरेशन को छ: साल बीत गए थे. वो आज तक तय नहीं कर पाया था
कि उसे इस रिश्ते को कानूनी रूप से खत्म कर देना है या नहीं. खत्म करके क्या
होगा. रिश्ते कागज़ के टुकड़े से नहीं बनते टूटते. और मेरी बेटी. उसका क्या
कुसूर है.
''अगला स्टेशन चर्चगेट है''
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
कल्पना में जीना और समाज की नज़रों में एक समानांतर
काल्पनिक जीवन जीना बहुत क्रिएटिव काम है. बीवी का बर्थडे, हमारी एनिवर्सरी, घर में पार्टी, छुट्टियों में घूमने जाना, बच्ची की पढ़ाई, उसका बर्थडे, घर पर मेहमान इतने सारे
काल्पनिक कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट लिखना कोई आसान काम नहीं.
एक दिन आकाश के घर से फोन आया कि उसका बेटा अचानक बहुत
बीमार हो गया है. आकाश फूट फूट कर रोने लगा. सबने उसे ढाढस बंधाया. शेखर ने भी
उसके पास जाकर कहा कि हौसला रखो. बच्चे अकसर बीमार पड़ ही जाते हैं. इसमें कौन सी
बड़ी बात है. तुम चिन्ता मत करो. मेरी बेटी भी कुछ दिन पहले इसी तरह बीमार पड़ गई
थी. कुछ नहीं होगा.
इसी तरह शेखर की वैडिंग एनिवर्सरी के किस्से तथा उनके गर्मी की छुट्टियों में घूमने जाने के प्रोग्राम और किस
प्रकार शेखर ने बड़ी चालाकी से होटल के स्टॉफ को सिखा कर बर्थडे केक अचानक से लाकर
टेबल पर रख देने के लिए कहा. किस तरह पहाड़ों पर उनकी वैन की ब्रेक फेल हो गई और
किस तरह उन्होंने लोगों से मांग मांग कर चाय पी पूरे ऑफिस ने कई बार सुने थे. कई
किस्से तो इतने दिलकश थे कि लोग बार बार उन्हें सुनाने के लिए शेखर से कहते. ये
किस्से शेखर के खुद लिखे हुए थे इसलिए उसे याद रहते थे. वो एक एक हर्फ हर बार उसी
तरह सुना दिया करता था. लोग हंसते थे. कुछ लोग चुटकी भी करते थे और बात आई गई हो
जाती थी.
''फोटो नहीं खींचे ?''
ठहाकों के बीच देवयानी
की पतली आवाज़ को ज्यादा लोग नहीं सुन पाए थे. और उसकी आंखों में साफ झलकता
अविश्वास भी शेखर के अलावा किसी को नज़र नहीं आया था.
''वो बताया था ना कि बंदर कैमरा लेकर भाग गया था, तो......'' शेखर ने खुद अपनी ही
आवा़ज़ में अपना झूठ पहली बार सुना था.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
देवयानी उत्तराखंड की
रहने वाली थी और तीन सालों से यहां शहर में नौकरी कर रही थी. ऑफिस के गॉसिप्प का
वो सबसे प्रिय विषय थी. एक तो लड़की ज़ात, ऊपर से उम्र तीस के पार, तीसरे कंवारी. तो
मांगलिक, गरीब, छोटे घर की वगैरह वगैरह सभी सामान्य लांछनों के बाद चरित्रहीन और बॉस के
साथ चक्कर आदि जैसी थ्योरीज़ भी हवा में थीं. लोगों से उसके गोरे रंग और निश्छल
हंसी का कोम्बो बर्दाश्त् नहीं होता था.
उस ''फोटो नहीं खींचे ?'' वाले सवाल के बाद से
पूरे ऑफिस में शेखर सिर्फ देवयानी से कतराता था. और कलीग्स के साथ हंसती बोलती देवयानी, शेखर पर नज़र पड़ते ही
मुस्कराना बंद कर देती थी. उसके चेहरे पर एक सपाट एक्स्प्रैशन आ जाता था. दोनों
एक दूसरे से खिंचे खिंचे से रहते थे.
प्रोमोशन की खबर मिलने
पर देवयानी ने बाज़ार से मिठाई मंगवाई थी. वो सबके टेबल पर जा जाकर झूठी सच्ची
बधाईयां बटोर रही थी. शेखर के टेबल पर जब वो आई तो शेखर ने बड़ी बहादुरी से स्माइल
करते हुए कहा, ''कांग्रैचुलेशन्स''.
पर जैसे ही शेखर ने
मिठाई वाले डिब्बे से गुलाब जामुन उठाने को हाथ बढ़ाया, देवयानी ने डिब्बा दूर
हटा लिया. शेखर झेंप गया और गुस्से, तिरस्कार तथा शर्मिंदगी के मिले जुले भाव से देवयानी की ओर देखने लगा.
''तुम्हारे लिए ये नहीं है''
''ठहरो'' ये कह कर वो अपने टेबल की ओर गई. वापस आई तो हाथ में उसका अपना खाने का
डिब्बा था.
उसने बिना कुछ कहे अपना
खाने का डिब्बा टेबल पर पड़े शेखर के खाने के डिब्बे के बगल में रख दिया.
''ये खा लेना''
शेखर ने बुदबुदाते हुए
कहा, ''पर खाना तो मैं लाया हूँ''
देवयानी ने एक अभिव्यक्ति
रहित नज़र से घूर कर शेखर की ओर देखा और बिना कुछ कहे चली गई. देवयानी का खाने का
डिब्बा वहीं पड़ा था.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
घर वापस जाते हुए शेखर
के बैग में खाने के दो डिब्बे थे. आज वो बहुत चौकन्ना होकर बार बार अपने बैग की
ख़राब हो चुकी चेन चैक कर रहा था. दोनों डिब्बे आपस में बज रहे थे. उनमें पड़े
चम्मच भी एक अलग प्रकार का संगीत उत्पन्न कर रहे थे.
आलू की सब्ज़ी, मिर्च का अचार और छोटे
छोटे तीन तिकोने आकार के परांठे. जिनमें से एक परांठे में से एक निवाला तोड़ा हुआ
था ताकि तीन की मनहूस संख्या को कम करके दुर्भाग्य को दूर किया जा सके. बिलकुल
शेखर की मां की तरह.
अभी तक रह रह कर मिर्च
के अचार का स्वाद उसकी जीभ पर उभर आता था और आनंद से उसकी आंखें बंद हो जाती. घर
पहुंचते ही शेखर ने सबसे पहले देवयानी का लंचबॉक्स निकाला और उसे धोकर शैल्फ पर
उल्टा करके सूखने के लिए रख दिया. फिर रोज़ की तरह चाय बनाई और सोफे पर बैठ कर
हरे रंग के लंचबॉक्स को निहारते हुए चाय पीने लगा.
आज ढाबे का खाना खाने का
मन नहीं था.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
बारह पैन्तालिस. शेखर
असमंजस में था कि पहले देवयानी का लंचबॉक्स वापस करे या पहले अपना रोज़ का खाली
डिब्बे वाला स्वांग पूरा करके खाना खा आए. दोनों खाली लंचबॉक्स साथ साथ पड़े
थे. वो उसके लंचबॉक्स को वहां छोड़कर अपना लंचबॉक्स उठा कर जा नहीं पा रहा था. फिर
वो झटके से उठा और दोनों खाली लंचबॉक्स लेकर कैन्टीन की तरफ बढ़ गया.
कैन्टीन के बॉय ने टेबल
पर रखे एक की जगह दो लंचबॉक्स देखकर मुँह बनाया और बोला, ''कहां रखूँ''
शेखर ने देवयानी के
लंचबॉक्स को अपने लंचबॉक्स के ऊपर रखा और जगह बनाते हुए कहा, ''यहीं रख दो और कहां
रखोगे.''
उसने रोटी का एक निवाला
तोड़ कर दाल में डुबोया ही था कि तभी देवयानी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया. ''क्या हुआ? मिसेज से झगड़ा हो गया? खाली टिफिन आज भी?''
शेखर ने सर उठा कर देखा
तो देवयानी खड़ी मुस्कुरा रही थी. उसने उठकर बगल की टेबल से एक कुर्सी खींची और
देवयानी से बैठने का इशारा किया.
''आज आप खाना नहीं लाईं?''
''कैसे लाती? लंचबॉक्स तो आपके पास रह
गया था ना.''
शेखर ने अपनी थाली की ओर
इशारा किया और देवयानी ने चुपचाप एक कौर रोटी का तोड़ कर मुँह में डाल लिया.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
''शादी से पहले एक लाख मांगा, फिर शादी वाले दिन मोटर साइकिल और शादी के बाद पचास हज़ार और.'' देवयानी ने अनन्त में
कुछ अदृष्य देखते देखते कहा. मेरे पापा के पास जितने पैसे थे उनहोंने सब मेरी
पढ़ाई और शादी में लगा दिए थे. उनके पास गुज़ारे के लिए पेंशन के अलावा कोई और
साधन नहीं था.
शेखर किसी बच्चे की तरह
टकटकी लगाकर उसकी बात सुन रहा था.
''रोज़ रोज़ की मांगों से तंग आकर मैं एक दिन बिना बताए अपने ससुराल से घर
चली आई. मेरे गांव में कभी किसी लड़की ने इससे पहले ऐसा नहीं किया था. सबकी बातें
सुनीं, ताने सुने, पर वापस नहीं गई.''
अब शेखर के चेहरे पर
गंभीर भाव आ चुके थे.
''मम्मी पापा ने तलाक नहीं लेने दिया. शायद इस उम्मीद में कि फिर से सुलह हो
जाए और मैं अपने पति के साथ रहने लगूँ. मैं शहर चली आई. ट्यूशन पढ़ाई, कंप्यूटर सीखा, पहले कॉल सैंटर में और
अब यहां नौकरी करने लगी. कोई पूछता तो कह देती थी कि शादी नहीं हुई क्योंकि
मांगलिक हूँ.''
''सवाल तो फिर भी उठते थे पर कम'' देवयानी ने मुस्कुराते हुए कहा और बाकी बची चाय पीने लगी.
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
''अच्छा....
''तुम्हें कैसे पता चला कि लंचबॉक्स में खाना नहीं होता है.''
''हम दोनों एक ही केटेगरी के जो हैं. मैं भी झूठी हूँ. तुम्हारी तरह.''
-०-०-०-०-०-०-०-०-०
Monday 18 April 2016
बालिश्त भर कहानी - दोस्त
वो दोस्त थे । वो सिर्फ घर ढूँढने में उसकी मदद कर रहा था । उस घर में उसकी दोस्त को अकेले ही रहना था । पर एक साथ कितने ही घरों में जाना और ड्राइंग रूम के छोटा होने या बैडरूम के साथ बाथ अटैच नहीं होने जैसी बातें डिस्कस करने में उसे एक अनकहा मज़ा आ रहा था ।
कभी मकान मालिकों और कभी प्रापर्टी डीलर्स का उन्हें गलती से पति पत्नि समझ लेना उसे अब अच्छा लगने लगा था । कई बार उसने और कई बार उसकी दोस्त ने एक्सप्लेन किया कि हम कॉलेज के ज़माने से दोस्त हैं । फिर दोनों ने एक्सप्लेन करना बंद कर दिया।
एक बार जब प्रापर्टी डीलर ने कहा कि यहाँ से बच्चों के लिए स्कूल बहुत पास है तो उसने शरारत भरी नज़र से अपनी दोस्त को देखते हुए प्रापर्टी डीलर से कहा कि हाँ भाई साहब बच्चों का स्कूल दूर होने से बहुत परेशानी होती है तो उसकी दोस्त ने अपनी बड़ी आंखें और बड़ी करके उसे धमकाया । पर फिर हंस दी।
कोई घर पसंद आता तो औकात के बाहर और कोई औकात के अंदर होता तो उसकी दोस्त के सपने से मेल नहीं खाता था । वो कहाँ लटकाएगी अपनी फेवरेट पेन्टिंग । कहाँ रखेगी अपनी कॉफी टेबल । अपनी किताबें । पचास के ऊपर घर देखने के बाद उसे भी अपनी दोस्त के सपनों का घर साफ साफ दिखने लगा था।
फिर एक दिन एक घर देखा । उसकी दोस्त के सपने से मेल खाता। जिसकी दीवारों पर वो अपनी पेन्टिंग्स देख पा रही थी । उस घर के कमरे की दीवारों में अपना म्यूजि़क सुन पा रही थी ।
घर मंहगा था । नहीं ख़रीद पाई वो । और वो कह नहीं पाया कि हम दोनों की सैलरी से हो जाएगा ।
कभी मकान मालिकों और कभी प्रापर्टी डीलर्स का उन्हें गलती से पति पत्नि समझ लेना उसे अब अच्छा लगने लगा था । कई बार उसने और कई बार उसकी दोस्त ने एक्सप्लेन किया कि हम कॉलेज के ज़माने से दोस्त हैं । फिर दोनों ने एक्सप्लेन करना बंद कर दिया।
एक बार जब प्रापर्टी डीलर ने कहा कि यहाँ से बच्चों के लिए स्कूल बहुत पास है तो उसने शरारत भरी नज़र से अपनी दोस्त को देखते हुए प्रापर्टी डीलर से कहा कि हाँ भाई साहब बच्चों का स्कूल दूर होने से बहुत परेशानी होती है तो उसकी दोस्त ने अपनी बड़ी आंखें और बड़ी करके उसे धमकाया । पर फिर हंस दी।
कोई घर पसंद आता तो औकात के बाहर और कोई औकात के अंदर होता तो उसकी दोस्त के सपने से मेल नहीं खाता था । वो कहाँ लटकाएगी अपनी फेवरेट पेन्टिंग । कहाँ रखेगी अपनी कॉफी टेबल । अपनी किताबें । पचास के ऊपर घर देखने के बाद उसे भी अपनी दोस्त के सपनों का घर साफ साफ दिखने लगा था।
फिर एक दिन एक घर देखा । उसकी दोस्त के सपने से मेल खाता। जिसकी दीवारों पर वो अपनी पेन्टिंग्स देख पा रही थी । उस घर के कमरे की दीवारों में अपना म्यूजि़क सुन पा रही थी ।
घर मंहगा था । नहीं ख़रीद पाई वो । और वो कह नहीं पाया कि हम दोनों की सैलरी से हो जाएगा ।
Sunday 20 December 2015
Koi Ek Square Inch
Kisi bhi deewar ka koi ek square inch chun lo.
Koi bhi deewar.
Woh deewar Rome mein bhi ho sakti hai aur Mohan Jo Daro mein bhi.
Wo deewar Cheen ki bhi ho sakti hai aur meri Nani ke uss purane makaan ki bhi jo unheN partition ke baad unke ghar ke badle mein mila tha.
Woh square inch, wohi ek square inch tumheN sau kahaniyaan suna sakta hai.
Kahaniyaan jinke paatr ban rahe the, ghade ja rahe the ussi waqt jab woh square inch taameer kiya ja raha tha.
Mazdoor, maalik, aurateN aur bachche unn kahaniyoN ke paatr the. JinheN kabhi likha nahiN gaya.
Sirf uss square inch ne unheN ghatitt hote dekha hai.
Chun lo koi bhi ek square inch.
Monday 8 June 2015
Delhi Metro Rocks | Just About Everything
My car is at the workshop for the last seven days and I am car-less which is not necessarily a bad thing considering you do not have to drive in Delhi and your getting killed in a road rage incident becomes a distant reality rather than a highly probable one. One of the options is to travel by Metro which I did today morning during rush hour. It was a life altering experience. During a peak hour Metro ride you get:
1. Free ki massage : I have been touched. At body parts I have not been touched for a long long time. It's my back you perverts. AND you are gay for about thirty minutes.
2. Free ka deo : You get smothered by arm pits glazed with different kinds of deos and by the time you reach your destination you smell of a new kind of deo specially created ON you.
3. Free ki direction : Now I understand why that sweet lady (you know who you are) tells us which way the doors are going to open because you lose sense of direction after a few stations and "thoda" adjustment.
4. Free ki intimacy: You are so up, close and personal while travelling in Metro that you get to see people's chat on Whatsapp or Facebook and for a brief time you are torn between looking at the roof of the coupé stupidly and staring at the personal chat of the person standing right next to you.
5. Free ki poking : While getting off, at last, there is a guy behind you who knows exactly what pressure point on your back they need to push to get you off the train quickly. The guy will poke you with his knuckles suggesting you to get off.
I am sure public transport offers more than cheap way to travel. It brings people closer. Perhaps a wee bit closer than we like.
Subscribe to:
Posts (Atom)