अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी
जब तक
पूरे ज़ोर से दबाए हुये सीने का दर्द
पहाड़ी चश्मे सा फूट कर
भिगो नहीं देता कागज को
जब तक
कलम आकर कलाई पकड़ कर
नहीं कह देती के अब मान भी जाओ
क्या करते हो कुछ तो लिखो
जब तक
कोई नज़्म मेरे कान में फुसफुसा कर
न कह दे के मैं यहीं हूँ
बस एक लंबी सांस भर कर छोड़ दो
और मैं बिखर जाऊँगी जहां कहोगे
अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी
जब तक
बर्दाश्त की हद खत्म नहीं हो जाए
और हवासों पे इख्तियार न रह जाए
और मैं अपनी ही चुप से तंग आकर
बेबस होकर चीख न पड़ूँ
अब तब तक नहीं लिखुंगा नहीं लिखुंगा कुछ भी
बेहद उम्दा .... !
ReplyDeleteawesome,touchy,beautiful poem....
ReplyDeleteBharat Bhai Thanks :)
ReplyDeleteInduJi Bahut shukriya :)