Tuesday 17 January 2012

अब तब तक

अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी 
जब तक
पूरे ज़ोर से दबाए हुये सीने का दर्द
पहाड़ी चश्मे सा फूट कर
भिगो नहीं देता कागज को
जब तक
कलम आकर कलाई पकड़ कर
नहीं कह देती के अब मान भी जाओ
क्या करते हो कुछ तो लिखो  
जब तक
कोई नज़्म मेरे कान में फुसफुसा कर
न कह दे के मैं यहीं हूँ
बस एक लंबी सांस भर कर छोड़ दो
और मैं बिखर जाऊँगी जहां कहोगे 

अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी
जब तक
बर्दाश्त की हद खत्म नहीं हो जाए
और हवासों पे इख्तियार न रह जाए
और मैं अपनी ही चुप से तंग आकर
बेबस होकर चीख न पड़ूँ
अब तब तक नहीं लिखुंगा नहीं लिखुंगा कुछ भी

Monday 9 January 2012

नल (The Tap)



This is a poem that deals with the romance of a very common man who forms a relationship with his own surroundings in the absence of any other kind of romance in his life. Which in turn actually reflects his real life romantic endeavors.

 मैं अपनी रोज़ की लड़ाई लड़ने
उठ कर जब तुम्हारे पास आता था
तुम पहले से ही सुबक रहे होते थे
फिर मेरे आते ही पानी बहने लगता था
और मेरे थपकियाँ देकर तुम्हें चुप कराने पर
तुम और ज़ोर से बहने लगते थे

मैं कई बार गुस्से में

तुम पर हाथ भी उठा देता था
पर उससे पानी रुकता नहीं था
तुम मेरे सब्र का इम्तिहान लेते रहते
और फिर मैं खुद को संभाल कर
एक खास अंदाज़ में तुम्हें
थोड़ा सहला कर घुमाता
तो तुम फौरन चुप हो जाते
मैं अपने इस हुनर पर
मन ही मन इतराया करता
फिर शाम को वही आलम
तंग आ गया था मैं तुमसे


और एक दिन कारीगर आकर

सब ठीक कर गया
मैं सुबह उठा तो सब भूल चुका था
तुम्हारे पास गया तुम खामोश थे
मैंने तुम्हें खोला
पानी बहने लगा
न कोई आवाज़ न कोई अंदाज़
बस मुसलसल पानी की मोटी धार
फिर हल्के से घुमाया
तुम खामोश हो गए
हमारे बीच एक लंबी उदास चुप थी
तुम मुझे जैसे कह रहे थे
अब खुश ?
मैंने कहा हाँ
मुझे अब मेरे हुनर की ज़रूरत न थी
तुम्हें अब मेरी तवज्जो नहीं चाहिए थी
आज तुम बहुत याद आ रही हो
काश के सब ठीक ना हुआ होता