Tuesday 17 January 2012

अब तब तक

अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी 
जब तक
पूरे ज़ोर से दबाए हुये सीने का दर्द
पहाड़ी चश्मे सा फूट कर
भिगो नहीं देता कागज को
जब तक
कलम आकर कलाई पकड़ कर
नहीं कह देती के अब मान भी जाओ
क्या करते हो कुछ तो लिखो  
जब तक
कोई नज़्म मेरे कान में फुसफुसा कर
न कह दे के मैं यहीं हूँ
बस एक लंबी सांस भर कर छोड़ दो
और मैं बिखर जाऊँगी जहां कहोगे 

अब तब तक नहीं लिखुंगा कुछ भी
जब तक
बर्दाश्त की हद खत्म नहीं हो जाए
और हवासों पे इख्तियार न रह जाए
और मैं अपनी ही चुप से तंग आकर
बेबस होकर चीख न पड़ूँ
अब तब तक नहीं लिखुंगा नहीं लिखुंगा कुछ भी

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